विलय के बाद भी जम्मू-कश्मीर को भारत के साथ पूरी तरह जुड़ने में लग गए सात दशक

Chhattisgarh Reporter
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छत्तीसगढ़ रिपोर्टर

जम्मू कश्मीर 06 नवंबर 2022। मौसम के हिसाब से रंग बदलते सैकड़ों सालों की उम्र लिए चिनार के पेड़ जम्मू-कश्मीर में हर बदलाव के गवाह हैं। इन्होंने यहां की शैव परंपरा, सूफी मत और कश्मीरियत को महसूस किया है। विदेशी आक्रमण देखे हैं, आतंकी हमले झेले हैं। चाहे वो बालटाल का रास्ता हो या पहलगाम का, अमरनाथ यात्रियों का सालों से चिनार का पत्ता-पत्ता इस्तकबाल करता रहा है। कभी आध्यात्मिक केंद्र रही वादी में चिनार ने इबादत स्थलों से रूह कंपाने वाली वो अलगावग्रस्त आवाजें भी सुनी हैं, जिन्होंने कश्मीरियत का गला घोंटा था। धरती के स्वर्ग में चार चांद लगाते चिनार अब बदलते जम्मू-कश्मीर में निकलते नए सूरज को भी देख रहे हैं। आजादी से पहले तिब्बत और अफगानिस्तान तक फैली रियासत से 26 अक्तूबर, 1947 को भारत का राज्य बना जम्मू-कश्मीर आज केंद्रशासित प्रदेश है। इसका विलय भले ही 1947 में हो गया था, लेकिन पूरी तरह से भारत के साथ जुड़ने में सात दशक लग गए। 5 अगस्त, 2019 को अनुच्छेद 370 व 35ए हटने के बाद अब यहां न दो निशान हैं और न ही दो विधान। राज्य के 205 कानून निरस्त हो चुके हैं। बीते तीन वर्ष में 890 केंद्रीय कानून जम्मू-कश्मीर में लागू हो गए हैं। दशकों पुरानी दरबार मूव व्यवस्था भी खत्म हो गई है। कई बंदिशें खत्म होने पर यह प्रदेश अब देश के साथ कदमताल करने लगा है। जम्मू-कश्मीर के द्वार सबके लिए खुल गए हैं। पहली बार त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था लागू होने से यहां के लोगों को अपने गांव के विकास का खाका खुद खींचने का अख्तियार मिल गया है।

 सामरिक महत्व का अति संवेदनशील यह प्रदेश चुनौतियों के पहाड़ पर अब नई इबारत लिख रहा है। लद्दाख से अलग हुए जम्मू- कश्मीर का नक्शा ही नहीं, करीब तीन दशक बाद हुए परिसीमन से उसकी सियासी तस्वीर भी बदल गई है। विधानसभा हलके 83 से बढ़कर 90 हो गए हैं। कश्मीर और जम्मू संभाग के बीच सत्ता संतुलन साधा गया है। परिसीमन में जम्मू संभाग की 6 सीटें बढ़ गई हैं। अब जम्मू में 43, कश्मीर में 47 सीटें हो गई हैं। पहली बार अनुसूचित जनजाति को आरक्षण मिला है। तमाम उतार-चढ़ाव और बदलाव के बाद जम्मू-कश्मीर फिर चुनाव के लिए तैयार है। घाटी में भले ही कुछ आतंकी घटनाएं हो रही हैं, लेकिन पत्थरबाज गायब हैं। लालचौक से लेकर एलओसी तक तिरंगा लहरा रहा है। वादी में बॉलीवुड लौट आया है। आतंकवाद के दौर में तीन दशक पहले बंद हुए सिनेमा हाल खुल गए हैं। बदले हालात में घाटी फिर पर्यटकों से गुलजार है। इस साल सितंबर तक 1.22 करोड़ सैलानियों ने कश्मीर का रुख किया। एक दशक से हर साल औसतन एक करोड़ सैलानी जम्मू-कश्मीर पहुंच रहे हैं।

मुश्किल हालात में बीते साढ़े सात दशकों की मेहनत एवं संघर्ष के बूते जम्मू-कश्मीर ने एक मुकाम हासिल किया है। स्वास्थ्य, शिक्षा व प्रति व्यक्ति आय जैसे मानव विकास मानकों में यह प्रदेश आज देश के अग्रिम पंक्ति के राज्यों में शुमार है। बीते 75 साल में यहां जीवन प्रत्याशा (लाइफ एक्सपेक्टेंसी) दोगुना से ज्यादा बढ़ गई है। साल 1947 के दौरान जम्मू-कश्मीर में औसत आयु 32 साल थी जो 2021 में 74.2 साल आंकी गई है। साक्षरता दर में करीब 10 गुना बढ़ोतरी दर्ज की गई है। वर्ष 1955-56 में 216 रुपये के मुकाबले प्रति व्यक्ति आय 1,04,860 रुपये पहुंच गई। वर्ष 1973-74 में 40.83 फीसदी आबादी गरीबी रेखा से नीचे थी, जो अब 10.35 फीसदी रह गई है। अस्थिरता के बावजूद सकल घरेलू उत्पाद बढ़ रहा है। 1955-56 में एनएसडीपी 67.97 करोड़ आंकी गई थी, बीते वित्त वर्ष में जम्मू-कश्मीर की जीडीपी 1.76 लाख करोड़ रिकॉर्ड की गई। प्रदेश की जीडीपी में 8.51 बढ़ोतरी दर्ज की गई है। 

कश्मीर पहुंच गई रेल, सुरंगों ने घटा दीं दूरियां : कठिन भौगोलिक परिस्थितियों और मौसम की दुश्वारियों के चलते कभी महीनों अलग-थलग रहने वाले कश्मीर में आज रेल दौड़ रही है। दस हाईवे के साथ एलओसी से एलएसी तक सड़कों का जाल बिछ गया है। साल 1950-51 में जम्मू-कश्मीर में महज 2003 किमी सड़कें थीं। अब 35 हजार किमी सड़क नेटवर्क है। आजादी से पहले जम्मू-सियालकोट के बीच रेल सेवा थी। उधमपुर-बारामुला रेल लिंक परियोजना के जरिये कश्मीर को जल्द पूरे देश से जोड़ने की तैयारी है। इसके लिए रियासी में दुनिया का सबसे ऊंचा रेल पुल बन रहा है। पूरा साल जम्मू, कश्मीर व लद्दाख को जोड़े रखने के लिए पांच बड़ी टनल परियोजनाओं पर काम चल रहा है।

पर्यटन, बागवानी और हस्तशिल्प में जम्मू-कश्मीर ने देश-दुनिया में पहचान बनाई है। देश के सबसे बड़े सेब उत्पादक प्रदेश जम्मू-कश्मीर का केसर, ड्राई फ्रूट और बासमती विदेशों में महक रही है। पहला स्कूल 1880 में कश्मीर में खुला। महाराजा हरि सिंह ने 1930 में प्राइमरी शिक्षा अनिवार्य कर दी थी। यहां 1950 से ही विश्वविद्यालय स्तर तक की पढ़ाई निशुल्क है। इसके बावजूद दशकों तक शिक्षा का वैसा ढांचा विकसित नहीं हो सका, जैसी नींव रखी गई थी। इसके पीछे की बड़ी वजह आतंकवाद और अलगाववाद रहा है।

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