छत्तीसगढ़ रिपोर्टर
नई दिल्ली 24 नवंबर 2024। पूर्व मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने न्यायाधीशों को सावधान रहने को कहा है। उन्होंने रविवार को कहा कि विशेष रुचि समूहों द्वारा मामलों के नतीजों को प्रभावित करने के लिए सोशल मीडिया का इस्तेमाल किया जा रहा है। इसलिए इससे सावधान रहने की जरूरत है। उन्होंने यह भी कहा कि आजकल लोग यूट्यूब या किसी अन्य सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर 20 सेकंड के आधार पर एक राय बनाना चाहते हैं, जो एक बड़ा खतरा है। उन्होंने आगे कहा, ‘आज विशेष रुचि समूह या दवाब बनाने वाले समूह हैं, जो न्यायालयों के विचारों और मामलों के परिणामों को प्रभावित करने के लिए सोशल मीडिया का उपयोग करने का प्रयास कर रहे हैं। प्रत्येक नागरिक को यह समझने का अधिकार है कि किसी निर्णय का आधार क्या है और न्यायालय के फैसलों पर अपनी राय व्यक्त करने का अधिकार है। लेकिन जब यह न्यायालय के निर्णयों से आगे बढ़कर व्यक्तिगत न्यायाधीशों को निशाना बनाता है, तो यह एक तरह से मौलिक प्रश्न उठाता है – क्या यह सच में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है?’
यह एक बहुत ही गंभीर मुद्दा: पूर्व सीजेआई
उन्होंने आगे कहा, ‘इसलिए हर कोई यूट्यूब या किसी भी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर जो कुछ भी देखता है, उसके आधार पर 20 सेकंड में अपनी राय बनाना चाहता है। यह एक गंभीर खतरा है, क्योंकि अदालतों में फैसला लेने की प्रक्रिया कहीं अधिक गंभीर है। यह वास्तव में बहुत ही छोटी बात है कि आज सोशल मीडिया पर किसी के पास इसे समझने के लिए धैर्य या सहनशीलता नहीं है, और यह एक बहुत ही गंभीर मुद्दा है, जिसका भारतीय न्यायपालिका सामना कर रही है।’
ट्रोलिंग पर यह कही बात
सोशल मीडिया पर ट्रोलिंग का जजों पर असर पड़ने के सवाल पर उन्होंने कहा, ‘न्यायाधीशों को इस तथ्य को लेकर बहुत सावधान रहना होगा कि वे लगातार विशेष हित समूहों के हमले के अधीन हो रहे हैं जो अदालतों में होने वाले फैसलों को बदलने की कोशिश कर रहे हैं। चंद्रचूड़ ने यह भी कहा कि लोकतंत्र में कानूनों की वैधता तय करने की शक्ति संवैधानिक अदालतों को सौंपी गई है। उन्होंने कहा कि शक्तियों का पृथक्करण यह मानता है कि कानून बनाने का काम विधायिका द्वारा किया जाएगा, कानून का निष्पादन कार्यपालिका द्वारा किया जाएगा, न्यायपालिका कानून की व्याख्या करेगी और विवादों का फैसला करेगी। कई बार ऐसा होता है कि यह काम मुश्किल में पड़ जाता है। लोकतंत्र में नीति निर्माण का काम सरकार को सौंपा जाता है।
उन्होंने आगे भी कहा, ‘जब मौलिक अधिकारों की बात आती है, तो संविधान के तहत न्यायालयों का कर्तव्य है कि वे हस्तक्षेप करें। नीति निर्माण विधायिका का काम है, लेकिन इसकी वैधता तय करना न्यायालयों का काम और जिम्मेदारी है।’
जब मौलिक अधिकार शामिल होते हैं…
पूर्व सीजेआई ने कहा, ‘जब मौलिक अधिकार शामिल होते हैं, तो संविधान के तहत अदालतें हस्तक्षेप करने के लिए बाध्य होती हैं। नीति निर्माण विधायिका का काम है, लेकिन इसकी वैधता तय करना अदालतों का काम और जिम्मेदारी है।’ वहीं, कॉलेजियम प्रणाली का बचाव करते हुए उन्होंने कहा कि प्रक्रिया के बारे में बहुत गलतफहमी है और यह बहुत बारीक और बहुस्तरीय है।
‘न्यायाधीशों की नियुक्ति में न्यायपालिका की विशेष भूमिका’
उन्होंने कहा, ‘ऐसा नहीं है कि न्यायाधीशों की नियुक्ति में न्यायपालिका की विशेष भूमिका है।’ 50वें सीजेआई ने कहा कि न्यायाधीशों की वरिष्ठता में पहली बात पर विचार किया जाना चाहिए। यह पूछे जाने पर कि क्या न्यायाधीशों को राजनीति में प्रवेश करना चाहिए, पूर्व सीजेआई ने कहा कि संविधान या कानून में ऐसा करने पर कोई रोक नहीं है। उन्होंने कहा, ‘समाज सेवानिवृत्ति के बाद भी आपको न्यायाधीश के रूप में देखता रहता है, इसलिए जो चीजें अन्य नागरिकों के लिए ठीक हैं, वे न्यायाधीशों के लिए पद छोड़ने के बाद भी ठीक नहीं होंगी। प्राथमिक तौर पर यह हर न्यायाधीश को तय करना है कि सेवानिवृत्ति के बाद उनके द्वारा लिए गए फैसले का उन लोगों पर असर होगा या नहीं जो न्यायाधीश के तौर पर उनके द्वारा किए गए काम का आकलन करते हैं।